एक बात समझ चूका हूँ.
जब things to do की list ख़त्म नहीं होती, वो सुस्तिले अजगर की चिकनी चमड़ी सी फ़ैल जाती है। मेजसे पलंगसे ,बरांदेसे, लगता है।
"अधूरा है " रेंगता -फिसलता है।
बिजली नहीं है कमरेमे फिलामेंट का घुमावदार दुःख लिए बल्ब हील रहा है। कमरे का खलीपन उसपर टाँग रखा है।
एक मगरमछ है पलंग से बंधा बचपन में किसी जन्मदिन पर मुझे भेट मिला है। और खाल की नक़्क़ाशीपर “महत्वाकांक्षा” लिखा है।
एक कोनेमे घड़ा है, जिसपर प्रश्नचिन्ह बना है। मै कोहनी सीधीकर कांधेतक हाथ घूमता हूँ, पानी तो पिता हूँ , पर प्यासा तो रहता हूँ।
एक खिड़कीमे बोनसाई है, एक खिड़कीमे क्याकट्स, खयाल उड़ते है पर्दोंपर, धूल जमी सतहोपर पस ही तो बहता है आखिर जख्मोंसे रह रह कर।
अगली दीवार खाली है ,उसपर एक वृत्त बना है। अनजानेमें उसके निचे मैंने शुन्य लिखा है। इसे त्रुटि कहु या गलती ? कब मैंने ये सोचा है ?
पूजाघर के बगलमे ये रवि वर्मा के चित्र, ( कितने सुन्दर !) "भगवान " पुराने हो गए है, फ्रेम बदलू? या चित्र बदलू? आस्थापर या वित्तपर कहा कुछ निर्भर होता है ?
एक बात समझ चूका हूँ अंधेरे कमरेमे
गहनता की सरल निष्पत्ति, अकल्पनीय सदा है, इसके पहले चुप्पी का पाठ,अमूर्तता से सिखु, अपने मनपर सन्नाटे की एक लकीर खीचू।