हर प्रश्न गलत, हर उत्तर गलत।
मुझे तर्क करना अच्छा नहीं लगता
मगर कारण और प्रमाण के बीना
जब मन मानताही नहीं है तो
ये कैसे तय करू की पोहोचा कहा
क्या मैं एक प्रवाह में हूँ?
हर चीज पर संदेह बुरी बात सही मगर शाश्वती बीना कोई प्रवासभी तो नहीं।
लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है,
मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ,
अभिभूत होना चाहता हूँ।
जिसे मैंने समझा साक्षी वो “मै” कभी कभी उजागर होता है।
वो जो देख रहा है रोज की आपाधापी,
वो जो जानता है की सपना है सच्चाई नहीं,
और वो भी जो तर्क कर सकता है और निष्कर्ष भी
वो “मै” कभी कभी उजागर होता है।
वो “मै” अपने भीतर समा लेना चाहता है,
उस की रहस्यामयता का परदा खोल कर उस में मिल जाना चाहता है-
यही मेरा रहस्यवाद है।
लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, मेरे और जो जाना उसके बिच अंतर जरुरी है ?
जिज्ञासा की परत को तोड़कर स्वीकृति के रस में डूब जाना,
जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना,
फिर भी ये जिज्ञासा! व्यर्थ है! क्योंकि वह माँग है,
मांग प्रार्थना नहीं है ना ध्यान है, यही मेरे समझ का निचोड़ है।
असीम का नंगापन ही सीमा है यह रहा मेरा विचार
सिखाई गई बुद्धि कहती है जो नंगा है वह सुन्दर नहीं है,
क्या सौन्दर्य-बोध ज्ञान का क्षेत्र है?
मैं इस पहेली को हल नहीं कर पाया हूँ
पर हर रहस्य को जानलेना चाहता हूँ
कपड़े उतार तो लेता हूँ और त्वचा पर
“मै” के जान लेनाका चिन्ह खोजने लगता हूँ।
आइने का प्रतिबिम्ब या आखोंका निष्कर्ष
या बुध्दिका मान लेना, या मन का छल कपट,
इतने विचारोंके बिच कैसे होगा निर्णय?
किस उत्तर का कोनसा प्रश्न सही
किस रेखा को सिमा कहना सही ?
सोच लेना मिलजायँगे सारे हल
स्वयं ही पूछे प्रश्नोंके इस विचार से हो तो होती है
हर चीज गलत।
हर प्रश्न गलत ,
हर उत्तर गलत।