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मैले पैर


बाहर निकलता हूँ घर से

किसी पेड़ के पास खड़ा रहता हूँ

देख रहा हूँ शरद का प्यार उमड़ा है।

पत्ते खींचे जा रहें है जमीं की तरफ

और जकड़ी शाखाएं तानकर चमड़ी

झुर्रियोंसी उभर रही है।

और धसे जा रहें है मेरे पैर उसी मिट्टीमे,

शाख पर बैठा पक्षी कह रहा है,- तरस खाओ मनपे

बुद्धिके आरी की धार कर रही है कत्ले आम !

क्या तुम्हे महसूस होती है घुटन हर गणितीय विचारसे

जरा लम्बी साँस लो सूंघो गंध को, खून बह रहा है दीवारोंसे।

कोण गीर रहा है सागर की लहरोंमे

पिघल चुके है मौंम के पंख

बताया गया था मत उड़ना बोहोत उचा

तुमसे कही ज्यादा तपता व्योम अन्तरालमे।

हर बार महसूस करता हूँ

गड़ेजाना भीतर ही भीतर

फिरभी चल पता हूँ इस बात पर अचंभित हूँ

अचंभित हूँ ये उलझन है,

उलझन है इसबात का फक्रभी

भाषा से मैंने सिखलिया है शब्दोंका खेल

ये नीचता शायद इंसान होनेके

पुरस्कार से प्राप्त हुई है।

फिर भी समाधान है

सोच पाता हूँ

आलोचना करता हूँ

चतुर हूँ

नजरअंदाज करता हूँ।

देखता हूँ

मैले पैर

और आगे बढ़ जाता हूँ।


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