घमंड
कितना कोलाहल है
इसमें मेरी आवाज कहा है
खोजता हूँ कुछ, मिलता है कुछ
इसमें मेरी आगाज क्या है ?
ये कितने प्यारे शत्रु मिले है उपहार में
मै अभी तक सोच रहा हूँ,
मेरे जैसा है शत्रु मेरा तो मै क्या हूँ ?
प्रहार मै करू, तो क्या घाव भी मै हूँ?
मेरा युद्ध प्रकृति की सृष्टियों से नहीं
खुदके आविष्कारित अपसृष्टियों से है।
मै तोडा जाऊ और मै उगता रहूँ
ये मेरी जिद है, यहां तक सोच ठीक है।
मगर मैंने देखा है उस परिचित अपाहिज -अंधेको
जो दीवार से पटक कर लोटता है,
और फिर दिवार की तरफ बढ़ता है
वो झूठ जो मुस्कुरा रहा है, वो मेराही घमंड है।