ग्रीष्म ऋतू की पहली कविता !
नहीं किसीका नहीं, मेरा अपना होगा छोटा सही मगर आँगन होगा मगर इमारतों की हवस सुना है पगडंडियोंतक पोहोच चुकी है. क्या सच है? कमरों में घर जैसे सिर्फ गर्मी रहती है?
उची घास, जिस में चलते चलते एक दूसरेको खोजना भी मुश्किल मैं तुम्हे खोजती हूँ भोर होने तक, दिखती है राह वो बस पगडण्डीं होती है, मैं फिरभी डरती हूँ मैं भी पगली हूँ शहर पी चूका जिसे उस खाली मटके को खोजती हूँ।
ग्रीष्म इसबार कितनी लम्बी छुट्टी लेकर आये हो कोख में मरे बच्चे सा तुम हिलते तक नहीं हो मेरी त्वचा पर खींच कर दोपहरी शाम तो लाती है सिपोंका चुना मुंह पर पोता चाँद लाती है
रात खुद ही प्यास की गागर कंकरोंसे भरनेवाला कोंआ बनती है बस साफ़ दीखते है वो तारे जो हसी जैसे चमकते है, फीर खुदकेही विस्पोटमे खत्म हो जाते है. मौसम ने मन के झरने तक सुखए आँसूओ का भी अहसास ऐसे होता है जैसे कश्मीरमें खाली शिकारे चलते है
क्या करे डरना आसान अभिनय नहीं रोजका भाव बनजाता है उन घरोंसे पूछो जो लकिरोंपे बसतें है जले जंगल के कोयले भी बारूद से महकते है