अंधेरा और काला शुन्य
मै अकेला अंधेरे में बैठा ये क्या सोचता हूँ ?
सोचता हूँ, ये मौन होना क्या होता है।
विचार और विवेक से दूर मन और मष्तिष्क
लहू और पानी की तरह अलग हो पाएंगे ?
ये एकाएक कोनसा शुन्य उभरा है आखोंके आगे
मै समज नहीं पता हूँ ! उसका व्यास, गहराई, अंतर कुछ भी नहीं !
इस वृत्त में कोण है परिक्रमा करता ? उसके मुँह के खुलतेहि कितने है दांत !
एक जिव्हा है लाल, जो सूरज को निगलने में हमेशासे है समर्थ !
इस अंधेरे में मै उस शुन्य से नहीं डरा
जो भीतर बहार से काला है ,
मै डरा नहीं हूँ इसका ये प्रमाण है,
जब ज्योति के सामने हथेली रखता हूँ
मेरा लहूं लाल है ये साफ दिखाई देता है।
अंधेरे में न जाने कितनी बार मैंने
कितना कुछ सोचा "अंधेरे" के बारें में
उजाला सिमित है सूरज का
और अंधेरा व्याप्त है हर तरफ।
एक छलांग लगानी चाही खुद के दांतोंपर खड़े रहकर,
भीतर गलेसे निचली खाई में भी ऐसाही शुन्य है।
एक टेलिस्कोप लेकर बैठ जाता हूँ
कुछ दूरीतक के तारे दिखाई देतें है और
उल्काये या स्याटेलाइट या हवाई जहाज
अपने टेलिस्कोप को उल्टा घूमने की कोशिश करता हूँ
छातीके स्टर्नम बोन में वो अटक भी जाता है ,
ये जानलेवा अंधेरा है ! ये नाभि- नाल है जो अंतरिक्ष से ही मिलती होगी।
अनुमान है !
रस्सिया बाँध ली है, उतरना है !
कई दार्शनिक अपने अपने लालटेन बेचने आएं है।
ये बेशक खरीदारी का समय नहीं, वे सब के सब मुझपर ग़ुस्सा है
मै उस शोर से डरा नहीं हूँ।
इस अंधेरे में मै उस शुन्य से नहीं डरा
जो भीतर बहार से काला है ,
मै डरा नहीं हूँ इसका ये प्रमाण है,
पानी देखता हूँ तो भोकता बिलकुल नहीं।
एक तरफ पित्त चमड़ीपर उभरे लाल काले धब्बोंमें घुलने लगता है,
जो खुजली से और लाल होने लगतें है।
महत्वाकांक्षा या अंधी भूक जिसे सब अनुभव करना है।
त्वचा का रोज मिट्टी बनाना
क्या रोज मृत्यु का उत्सव है?
रस, रक्त, मांस, मेंद, अस्थि, मज्जा, शुक्र
सब रोज विलीन हो रहे है ये जान लेना क्या कम है?
मुझे पता है उस शुन्य को जानना
और मेरे डर को जानना एक सा असंभव है,
भ्रम का ये सारा खेल मैंने खुद ही रचा है।
लुका छुपी के इस खेल को पता नहीं कब तक खेलना है।