अस्तित्व
अस्तित्व
जो रहु अकेला अक्सर सवाल करता हूँ
क्या है अस्तित्व? और कोण हूँ मै ?
ये जानने की जरूरत क्यों पड़ती है अकेले में ?
हा ! सुना है हर बार अस्तित्व का क्या पार , वो है अपार।
दिन उगता है! आज और कल में और आने वाले कल में क्या फर्क पड़ता है ?
मिटटी के बर्तन की सीमा कितनी है साबुत है, तब तक पानी पिलाता है।
असह्य है जीवन, ये कहकर कोई जान दे देता है
और कोई मरने तक जीता है।
चितापर राख होजाता है जब सब कुछ
वो इंसान कहा जाता है ?
ये पहले से बनाये गए कुछ उत्तर, जटिल प्रश्नोंके
और मेरे बासी प्रश्न जर्जर,
इनका आमना सामना अक्सर होता है,
हर पन्ना अपनी अपनी बात करता है।
पर्दा खिसकने इतना आसान होता तो हटा देता
कोई गाना चला कर ये भुला देता।
मगर एक खयाल ये आया
मैंने अपनी आखोसे जानवर देखा उसे जानवर कहा
जानवर की आखों में मै कोण था? उसने मुझे क्या समझा? ये प्रश्न भी गौन था।
सांसोंकी की आवाज सुनि है खुदके
और मन रचनाये करता रहता है
दिनके और रातोंके ख्वाबोंका जन्म
आखिर क्यों , कहा पर होता है?
अस्तित्व आखिर क्या होता है?