द्वंष
मैंने जो अनुभव किया है,
एकांतमें सबसे ज्यादा
वो रुई के स्पर्श या चंपा की गंध नहीं हो सकता
वो तपते रोटी की ऊब या भूक से मरोड़ की आंत नहीं हो सकता।
लगता है रीढ़ की हड्डीसे
गुजरते तंतुओंने बर्फ छू लियाँ है
मगर वो बर्फ है इसका मुझे पूरा यकीन नहीं है।
रक्त पेशिया और हर विचार का बाष्प
मस्तिष्क में खो रही है।
और संवेदनाये पंचेंद्रियोंसे
अनुभव का किस्सा उछाल रही है।
जैसे कोई खून का स्वाद नरभक्षी से पूछ रहा है।
एक सुरंग जिसका खत्म न होना
एक गहरी नीद है जो
स्वप्नके अधूरे खत्म होनेसे
किसी विक्षिप्त स्वप्न के शुरवात बिच
का वो पड़ाव है, अपरिचित अंधकार।
इस खाई में जो मुझे धीरे धीरे ढकेलेगा
क्या वही मेरे अस्तित्व को थामे रहेगा ?
विश्वास और पता होने का दायरा क्या कम हो पायेगा ?
कोनसा वो शब्द है जो मेरे अनुभव की व्याख्या कर पायेगा ?